Live Button LIVE

Rani Laxmibai: पितृसत्ता के नियम तोड़ कर रानी लक्ष्मीबाई बनी थीं 1857 की क्रांति की सबसे बड़ी आवाज़

Rani Laxmibai: पितृसत्ता के नियम तोड़ कर रानी लक्ष्मीबाई बनी थीं 1857 की क्रांति की सबसे बड़ी आवाज़

Rani Laxmibai (जन्म: लगभग 19 नवंबर 1835, काशी—मृत्यु: 18 जून 1858, कोटाह-की-सराय, ग्वालियर के पास) झांसी की रानी थीं और 1857-58 की भारतीय क्रांति की एक महान नायिका थीं। उन्होंने न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ डटकर मुकाबला किया, बल्कि अपनी वीरता और नेतृत्व से इतिहास में अमर हो गईं। लक्ष्मीबाई का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ, लेकिन उनकी परवरिश पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में हुई, जो उस समय के लिए असामान्य थी। वहां वे लड़कों के साथ युद्धकला, तलवारबाजी, और घुड़सवारी में पारंगत हुईं। उन्होंने झांसी के महाराजा गंगाधर राव से विवाह किया, लेकिन उनके कोई जीवित उत्तराधिकारी नहीं था। गंगाधर राव ने मृत्यु से पहले एक बालक को गोद लिया, लेकिन ब्रिटिश गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ने उनकी “लैप्स नीति” के तहत इस गोद लिए बच्चे को मान्यता देने से इनकार कर दिया और झांसी को ब्रिटिश शासन में मिला लिया। आइए, रानी लक्ष्मीबाई की इस प्रेरणादायक कहानी को और करीब से जानते हैं।

प्रारंभिक जीवन और झांसी की रानी

लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में हुआ और उनकी परवरिश पेशवा के दरबार में एक योद्धा की तरह हुई। बचपन में उन्हें मनुबाई के नाम से जाना जाता था। तलवारबाजी और घुड़सवारी में उनकी महारत ने उन्हें एक साहसी योद्धा बनाया। गंगाधर राव से विवाह के बाद वे झांसी की रानी बनीं। दुर्भाग्यवश, उनके पति की मृत्यु के बाद कोई जीवित वारिस न होने के कारण, उन्होंने अपने पति के गोद लिए पुत्र को गद्दी का उत्तराधिकारी बनाया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस गोद को अवैध ठहराया और 1853 में झांसी को अपने कब्जे में ले लिया। 22 साल की उम्र में, लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिशों को झांसी सौंपने से साफ इनकार कर दिया। 1857 में जब मेरठ में विद्रोह की शुरुआत हुई, लक्ष्मीबाई को झांसी का रीजेंट (संरक्षक) बनाया गया, और उन्होंने अपने नाबालिग उत्तराधिकारी की ओर से शासन शुरू किया।

1857 की क्रांति में लक्ष्मीबाई की भूमिका

1857 का विद्रोह, जिसे भारत की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है, मेरठ से शुरू होकर दिल्ली, आगरा, कानपुर, और लखनऊ तक फैल गया। लक्ष्मीबाई ने इस विद्रोह का समर्थन किया और झांसी में विद्रोहियों का नेतृत्व संभाला। उन्होंने तेजी से अपनी सेना को संगठित किया और बुंदेलखंड क्षेत्र में विद्रोहियों का नेतृत्व किया। आसपास के विद्रोही समूह झांसी की ओर बढ़े और उन्हें समर्थन देने लगे। लक्ष्मीबाई ने अपनी छोटी लेकिन साहसी सेना के साथ ब्रिटिश शासन के खिलाफ मोर्चा खोला। उनकी वीरता और रणनीति ने उन्हें एक प्रेरणादायक नेता बना दिया। इस दौरान, उन्होंने न केवल अपनी सेना को मजबूत किया, बल्कि आसपास के क्षेत्रों से भी समर्थन जुटाया, जिसने ब्रिटिशों के लिए चुनौती खड़ी कर दी।

Rani Laxmibai: पितृसत्ता के नियम तोड़ कर रानी लक्ष्मीबाई बनी थीं 1857 की क्रांति की सबसे बड़ी आवाज़

झांसी की घेराबंदी और वीरतापूर्ण प्रतिरोध

जनवरी 1858 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने जनरल ह्यूग रोज़ के नेतृत्व में बुंदेलखंड में जवाबी हमला शुरू किया। फरवरी में सागर पर कब्जा करने के बाद, मार्च में उनकी सेना ने झांसी के किले को घेर लिया। लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना का डटकर मुकाबला किया। उनके सैनिकों ने किले की रक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन भारी गोलाबारी और ब्रिटिशों की विशाल सेना के सामने उनकी सेना कमजोर पड़ने लगी। एक अन्य विद्रोही नेता तांत्या तोपे ने झांसी को बचाने की कोशिश की, लेकिन वे बेतवा की लड़ाई में हार गए। फिर भी, लक्ष्मीबाई ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने कुछ विश्वस्त गार्डों के साथ किले से भागकर पूर्व की ओर रुख किया, जहां अन्य विद्रोही उनकी सेना में शामिल हो गए। उनकी यह बहादुरी और दृढ़ता आज भी इतिहास में गूंजती है।

ग्वालियर पर कब्जा और अंतिम युद्ध

लक्ष्मीबाई और तांत्या तोपे ने मिलकर ग्वालियर के किले पर हमला किया और उसे अपने कब्जे में ले लिया। इस जीत ने विद्रोहियों का हौसला बढ़ाया। ग्वालियर की खजाने और हथियारों पर कब्जा करने के बाद, नाना साहिब को पेशवा घोषित किया गया। लेकिन ब्रिटिश सेना ने ह्यूग रोज़ के नेतृत्व में जवाबी हमला बोला। लक्ष्मीबाई ने पुरुष वेश में युद्ध में हिस्सा लिया। 18 जून 1858 को, कोटाह-की-सराय के पास मोरार में हुए इस भयंकर युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुईं। उनकी मृत्यु ने विद्रोहियों के लिए एक बड़ा झटका था, लेकिन उनकी वीरता ने उन्हें अमर बना दिया। लक्ष्मीबाई की कहानी आज भी हर भारतीय के लिए प्रेरणा है, जो स्वतंत्रता और सम्मान के लिए लड़ने की भावना को जागृत करती है।

1857 की क्रांति का पृष्ठभूमि और प्रभाव

1857 का विद्रोह केवल सैनिकों का विद्रोह नहीं था; इसके पीछे कई गहरे कारण थे। ब्रिटिशों की “लैप्स नीति” ने कई रियासतों को हड़प लिया, जिससे राजा-रजवाड़ों में असंतोष बढ़ा। इसके अलावा, पश्चिमीकरण, मिशनरियों की गतिविधियां, और हिंदू परंपराओं जैसे विधवा पुनर्विवाह और संपत्ति के बंटवारे के खिलाफ ब्रिटिश कानूनों ने लोगों में गुस्सा भड़काया। नई एनफील्ड राइफल की कारतूसों में सुअर और गाय की चर्बी की अफवाह ने विद्रोह को और हवा दी। मेरठ में शुरू हुआ यह विद्रोह दिल्ली, कानपुर, और लखनऊ तक फैल गया। हालांकि यह विद्रोह असफल रहा, लेकिन इसने भारत में स्वतंत्रता की चेतना को जागृत किया। लक्ष्मीबाई जैसे नेताओं की वीरता ने इस विद्रोह को एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप दिया, जिसने बाद में स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी।

Share:

WhatsApp
Telegram
Facebook
Twitter
LinkedIn