Maharana Pratap का जन्म 1540 में मेवाड़ के राजा उदय सिंह द्वितीय और उनकी पत्नी जयवंता बाई के घर हुआ। यह वही साल था जब उदय सिंह ने वनवीर सिंह को हराकर मेवाड़ की गद्दी संभाली थी। उनके छोटे भाई शक्ति सिंह, विक्रम सिंह, और जगमाल सिंह थे, साथ ही उनकी दो सौतेली बहनें चांद कंवर और मान कंवर थीं। प्रताप की मुख्य रानी अजबदे बाई पुनवर थीं, जो बीजोलिया की थीं, और उनका सबसे बड़ा बेटा अमर सिंह प्रथम था। मेवाड़ के सिसोदिया राजपूत वंश से ताल्लुक रखने वाले प्रताप 1572 में अपने पिता की मृत्यु के बाद मेवाड़ के 54वें शासक बने। रानी धीर बाई भटियानी अपने बेटे जगमाल को राजा बनाना चाहती थीं, लेकिन दरबार के वरिष्ठ लोगों ने बड़े बेटे प्रताप को चुना। होली के शुभ दिन गोगुंदा में उनका राजतिलक हुआ। जगमाल ने बदला लेने की कसम खाई और अकबर की सेना में शामिल होने के लिए अजमेर चला गया, जहां उसे बाद में सिरोही का हिस्सा मिला।
अकबर के साथ टकराव की शुरुआत
मुगल सम्राट अकबर शुरू में महाराणा प्रताप के साथ कूटनीति से काम लेना चाहता था। हालांकि प्रताप के प्रतिद्वंद्वी जगमाल को अकबर का समर्थन प्राप्त था, लेकिन गुजरात में चल रहे विद्रोह के कारण अकबर ने सैन्य हस्तक्षेप से परहेज किया। उसने प्रताप को समझाने के लिए कई दूत भेजे, जिनमें जलाल खान, मानसिंह, राजा भगवंत दास, और टोडरमल शामिल थे। लेकिन ये सभी प्रयास नाकाम रहे। प्रताप ने या तो अस्पष्ट वादे किए या दूतों से मिलने से इनकार कर दिया। राजपूत स्रोतों का दावा है कि प्रताप ने मानसिंह का अपमान किया, उनके सम्मान में आयोजित भोज में शामिल नहीं हुए, हालांकि आधुनिक इतिहासकार इसे अतिशयोक्ति मानते हैं। अकबर की शर्तें—जैसे मुगल दरबार में व्यक्तिगत उपस्थिति, कर देना, या वैवाहिक गठबंधन—प्रताप को स्वीकार नहीं थीं। 1573 के अंत तक यह साफ हो गया कि शांति संभव नहीं, और युद्ध तय था।
राम प्रसाद हाथी: एक अनोखा विवाद
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अकबर और प्रताप के बीच एक बड़ा विवाद राम प्रसाद नामक हाथी को लेकर था। बदायूंनी और अबुल फजल जैसे स्रोतों के अनुसार, अकबर ने बार-बार इस हाथी को प्रताप से मांगा, लेकिन प्रताप ने इसे देने से इनकार कर दिया। बाद में हल्दीघाटी की लड़ाई में यह हाथी मुगल सेना ने कब्जा कर लिया और अकबर के पास ले जाया गया। बदायूंनी ने इसे दोनों के बीच विवाद का एक कारण बताया। यह घटना प्रताप की मुगलों के सामने झुकने से इनकार करने की भावना को और मजबूत करती है। कुछ स्रोतों में यह भी दावा किया गया कि प्रताप ने अपने बेटे अमर सिंह को अकबर के दरबार में भेजा था, लेकिन इतिहासकार इसे संदिग्ध मानते हैं। इस तरह के छोटे लेकिन महत्वपूर्ण विवादों ने दोनों पक्षों के बीच तनाव को और बढ़ाया।
हल्दीघाटी की लड़ाई और प्रताप का साहस
1567-68 में चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी के बाद मेवाड़ का उपजाऊ पूर्वी हिस्सा मुगलों के कब्जे में चला गया था। लेकिन मेवाड़ का पहाड़ी और जंगली हिस्सा अभी भी प्रताप के नियंत्रण में था। अकबर गुजरात तक एक स्थिर मार्ग चाहता था, जिसके लिए मेवाड़ पर कब्जा जरूरी था। उसने प्रताप को अपने अधीन करने के लिए कई दूत भेजे, जिसमें आमेर के राजा मान सिंह भी शामिल थे। लेकिन प्रताप ने मुगल सम्राट के सामने झुकने से साफ इनकार कर दिया। जब कूटनीति नाकाम रही, तो दोनों के बीच युद्ध अनिवार्य हो गया। 1576 में हल्दीघाटी की प्रसिद्ध लड़ाई हुई, जिसमें प्रताप ने अपनी छोटी लेकिन बहादुर सेना के साथ मुगल सेना का डटकर मुकाबला किया। हालांकि यह लड़ाई तकनीकी रूप से मुगलों ने जीती, लेकिन प्रताप की वीरता और उनके घोड़े चेतक की बहादुरी ने उन्हें अमर बना दिया।
अकबर का प्रस्ताव और प्रताप का जवाब
कुछ स्रोतों के अनुसार, अकबर ने अपनी साम्राज्य विस्तार की नीति के तहत प्रताप को पंज हजारी (5000 सैनिकों का कमांडर) का दर्जा देने की पेशकश की थी। लेकिन प्रताप ने इसे ठुकरा दिया और दह हजारी (10,000 सैनिकों का कमांडर) का दर्जा मांगा। यह मांग उनकी स्वतंत्रता और आत्मसम्मान की भावना को दर्शाती है। प्रताप का यह रुख अकबर के लिए चुनौती बन गया, जिसने हल्दीघाटी की लड़ाई को और भड़काया। प्रताप ने न केवल मुगलों की सैन्य ताकत का सामना किया, बल्कि अपनी रणनीति और गुरिल्ला युद्ध की तकनीक से उन्हें बार-बार परेशान किया। उन्होंने मेवाड़ की पहाड़ियों का इस्तेमाल करते हुए मुगलों को लगातार चुनौती दी और कभी भी पूरी तरह से हार नहीं मानी।
महाराणा प्रताप: एक लोकनायक की विरासत
महाराणा प्रताप आज भी राजस्थान और पूरे भारत में एक लोकनायक के रूप में पूजे जाते हैं। उनकी वीरता, आत्मसम्मान, और स्वतंत्रता के लिए लड़ने की भावना ने उन्हें इतिहास में अमर कर दिया। हल्दीघाटी की लड़ाई भले ही तकनीकी रूप से हारी गई हो, लेकिन प्रताप ने कभी मुगलों के सामने घुटने नहीं टेके। उनकी गुरिल्ला युद्ध की रणनीति और मेवाड़ की रक्षा के लिए उनकी जिद ने उन्हें एक प्रेरणा बना दिया। राजस्थानी लोककथाओं, गीतों, और कहानियों में उनकी गाथा आज भी गाई जाती है। प्रताप सिर्फ एक राजा नहीं, बल्कि स्वतंत्रता और सम्मान का प्रतीक हैं। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची जीत ताकत में नहीं, बल्कि हौसले और आत्मसम्मान में होती है।